भगवद गीता अध्याय 2 – दोस्तों, जय श्री मन नारायण, जीवन तो सब जीते हैं लेकिन इसको जीने का सही तरीका कितने लोगों के पास है? यही धेय है हमारी भगवद्गीता का।
चलिए दोस्तों, भगवत गीता के दूसरे अध्याय को आसान शब्दों में समझते हैं, हमने पहले अध्याय में अर्जुनविषादयोग अर्थात अर्जुन के विषाद, उनके दुख, उनकी दुविधा के बारे में जाना था, इस अध्याय में श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन की इस दुविधा का उत्तर दिया जाता है और इस अध्याय का नाम सांख्य योग है।
इस अध्याय में अर्जुन की कायरता और उनके भ्रम को लेकर विश्लेषण है और यहीं से उस ज्ञान की शुरुआत होती है, जिसके लिए भगवत गीता को दुनिया का महान ग्रंथ और ज्ञान का भंडार माना जाता है।
संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ।।2.1।।
संजय कहते हैं, उस प्रकार करुणा से भरे हुए और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त अर्जुन को भगवान देखते हैं।
अर्जुन दुख से घिरा हुआ है और उनकी आशा भी ख़त्म हो चुकी है, साथ ही साथ हिम्मत भी टूट चुकी है और ऐसे में श्री कृष्ण उन्हें समझाना शुरू करते हैं, जहाँ युद्ध का वर्णन होना चाहिए था, वहां दुख और विषाद का माहौल है।
अर्जुन की आँखों में आसूं और मन में निराशा है, यह एक बहुत बड़ी हैरानी की बात थी और धृतराष्ट्र और संजय इसकी आशा बिलकुल भी नहीं कर रहे थे और अर्जुन का दुख देखकर श्रीकृष्ण उनका उत्तर देने के लिए तैयार होते हैं।
श्रीभगवानुवाच कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यम् कीर्तिकरमर्जुन ।।2.2।।
श्री कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन ! तुम्हें इस समय, असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ, क्योंकि न तो ये श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा आचरित है, न स्वर्ग देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है, युद्ध के समय ऐसी शंका, ये तो असमय है।
दोस्तों, इस तरह अपने शत्रु के प्रति मोह दिखाने का काम अर्जुन जैसे योद्धा किस प्रकार कर सकते हैं, अपने कर्म से मुँह मोड़कर किसी मोह या किसी और कारण से यदि हम हताश बैठ जायें, तो वह ठीक नहीं है, इससे कभी कोई लाभ नहीं होता।
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ।।2.3।।
यहाँ श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं, हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, अगर तुम युद्ध में आए हो तो युद्ध करो, ऐसे डरो मत और तुम्हारे जैसे धनुर्धर के लिए यह सब ठीक नहीं है, यह सही नहीं है की इस तरह से मन की कमज़ोरी दिखाओ।
दोस्तों, श्रीकृष्ण यहाँ नपुंसकता का अर्थ शक्तिहीनता, कमज़ोर हो जाना और युद्ध से मुँह मोड़ लेने वाली बात कर रहें हैं अर्थात जो धर्म कहता है, उसके अनुसार तो कर्म करना ही चाहिए और स्वयं को कमज़ोर मान कर कार्य को छोड़ देना यह सही नहीं है।
बुरे समय में जब हमें भी आशंका सताए तो यही बात हमें याद रखनी चाहिए कि मन की दुर्बलता छोड़कर हमें उस कर्म के बारे में सोचना चाहिए जो हम करने के लिए आये हैं।
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ।।2.4।।
अर्जुन अपनी शंका के बारे में कहते हैं, हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और गुरु द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँ, जिनसे मैंने सब कुछ सीखा है, जो मेरे लिए सबसे बड़े हैं, उनपर मैं कैसे बाण चला सकता हूँ?
दोस्तों, यहाँ पर अर्जुन का कहना है, क्या यह सुनने में गलत नहीं लगता है कि जिनसे उन्होंने अपने जीवन में सब कुछ सीखा है, उन पर वे बाण कैसे चला सकते हैं, लेकिन युद्ध का तो यही कार्य है।
बाण शत्रु और अपने में भेद नहीं करता, जब वो चलता है तो प्राण लेने के इरादे से चलता है, जिसे करने में अर्जुन इस समय असफल हो रहें हैं।
गुरूनहत्वा हि महानुभावा ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ।।2.5।।
भगवद गीता अध्याय 2 – अर्जुन की दुविधा गलत प्रतीत नहीं होती है, जब वे ऐसा कहते हैं कि इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ।
यहाँ पर अर्जुन कहते हैं कि इन गुरुजनों को मारकर इस दुनिया में किसी भी तरह का लाभ ले लूं उसका क्या ही मतलब है, अपने इन लोगों को मारकर उससे अर्थ व भोग, धन-धान्य, ऐश्वर्य ये सब तो मैं प्राप्त कर लूंगा, परंतु ऐसे भोगों से क्या प्राप्त होगा।
दोस्तों, अर्जुन ही नहीं दुनिया में न जाने ऐसे कितने लोग होते हैं, जिन्हें लगता है कि परिवार भी न छूटे और मोक्ष भी प्राप्त हो जाए, परंतु यह तो संभव नहीं।
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ।।2.6।।
अर्जुन कहते हैं, हम ये भी नहीं जानते की हमारे लिए युद्ध करना या न करना इसमें से कौन सा श्रेष्ठ है अथवा ये भी नहीं जानते की हम जीतेंगे या वे हमको जीतेंगे और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं।
भविष्य में क्या होगा यह तो कोई नहीं जानता, विधि ने क्या विधान लिखा है, इसके बारे में कोई नहीं जानता है, परंतु वर्तमान में जो हम करना चाहते हैं, उसका निर्णय हमारे हाथ में होता है और हमारे कर्म सिर्फ और सिर्फ हमारे ही हाथ में हैं।
तो क्या युद्ध जीतने के लिए अपनों को मारना ठीक है, अपने कर्म को पूरा करने के लिए हमें किस सीमा तक जाना चाहिए और किस सीमा को पार करना चाहिए?
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ।।2.7।।
इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ, कि जो साधन निश्चित और कल्याणकारी हो वो मेरे लिए कहिए क्यूंकि प्रभु मैं आपका शिष्य हूँ।
दोस्तों, कमज़ोर क्षणों में हम डर जाते हैं, जिससे उलझन का भाव हमारे अंदर आ जाता है, अर्जुन भी यही मान रहे हैं की वे उलझन में हैं और कायरता का दोष वे अपने ऊपर ले रहे हैं और तभी वे कहते हैं कि श्रीकृष्ण मैं आपका शिष्य हूँ, मैं अपने आपको समर्पित करता हूँ, मुझे यह बताइये की क्या सही है।
दोस्तों, दुविधा के समय गुरु ही एकमात्र सहारा होता है और गुरु के सामने कुछ भी छुपाना नहीं चाहिए और खुलकर अपना भय, अपनी शंका सामने रख देनी चाहिए, अगर हम ऐसा करते हैं तभी तो हमें मार्गदर्शन मिलेगा।
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ।।2.8।।
इसके आगे अर्जुन कहते हैं, जीतने के बाद उन्हें जमीन मिल जाएगी, धन-धन्य प्राप्त होगा, नाम होगा, परंतु यह सब मिलने के बाद उनका यह दुख कम नहीं होगा जो उन्हें अभी महसूस हो रहा है।
दोस्तों, जब अपनों का दुख सताता है, तो किसी भी तरह का लाभ आराम नहीं देता और उससे भी बड़ी बात अगर आप दुख मे हैं तो जब तक आप उसका उपाय ढूंढ नहीं लेते आपको दुनिया का कोई भी सुख आराम नहीं दे पाता है।
संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ।।2.9।।
संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं, हे राजन ! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि मैं युद्ध नहीं करूँगा और ये स्पष्ट कहकर चुप हो जाते हैं।
यानी निद्रा हमारी प्राकृतिक आवश्यकता है, इसपर दुनिया में कोई भी विजय नहीं पा सका है, परंतु अर्जुन को इतना महान योद्धा माना जाता था कि उन्होंने निद्रा पर भी विजय प्राप्त कर ली थी और वही अर्जुन अपनी निद्रा से तो नहीं लेकिन अपने मोह, अपने डर से हारते हुए दिख रहे हैं।
किस समय कौनसी कमज़ोरी हम पर हावी हो जाए ये कहा नहीं जा सकता, लेकिन अर्जुन अपनी इस दुर्बलता को हराकर आगे बढे थे और ऐसा ही हमें भी प्रयास करना चाहिए।
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ।।2.10।।
भगवद गीता अध्याय 2 – धृतराष्ट्र की उत्सुकता बढ़ रही है और स्वाभाविक भी है कि एक पिता होने के नाते वे दुर्योधन को जिताना चाहते थे, वे युद्ध में भाग तो नहीं ले सकते थे किंतु युद्ध की हर बात जानना चाहते हैं।
संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं कि, हे भरतवंशी धृतराष्ट्र ! दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते अर्जुन हैं और उनके सामने अन्तर्यामी श्रीकृष्ण हँसते हुए उनको यह कह रहे हैं कि एक तरफ रोता हुआ कमज़ोर, डरा हुआ बालक जैसे की अर्जुन और दूसरी तरफ त्रिकाल दर्शी कृष्ण हैं।
शायद इसीलिए श्रीकृष्ण को छलिया भी कहते थे, रोते हुए के सामने भला इस तरह से कौन हँसता है और वे इसलिए हँसते थे क्यूंकि उनको जो पता था वह किसी को नहीं पता था।
श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ।।2.11।।
दोस्तों, श्रीकृष्ण का गीता ज्ञान अब यहाँ से आरंभ हो रहा है, भगवान कहते हैं, अर्जुन तुम न शोक करने योग्य मनुष्यों के शोक करते हो और पंडितों की तरह मुझसे बाते करते हो, परंतु जिनके प्राण चले गए हैं उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पंडितजन शोक नहीं करते हैं।
श्री कृष्ण का ज्ञान अंतिम सत्य है, वे अर्जुन से कहते हैं तुम न पंडितों की तरह बाते कर रहे हो और न ही ज्ञानियों की तरह बाते कर रहे हो।
जो पंडित और ज्ञानी होते हैं, वो किसी के मरने पर या जीवित रहने पर शोक नहीं करते हैं, अर्थात इस दुनिया में किसी भी बात का शोक नहीं करना चाहिए।
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।2.12।।
हे अर्जुन ! न तो ऐसा ही है कि किसी काल में मैं नहीं था, तुम नहीं थे अथवा ये राजा लोग नहीं थे, और न ऐसा ही है की इससे आगे हम नहीं रहेंगे, ऐसा कोई समय नहीं था अर्जुन जब अर्जुन नहीं था, कृष्ण नहीं था, बाकी के राजा नहीं थे, हम आते हैं और जाते हैं, फिर से आते हैं और समय का खेल चलता रहता है।
दोस्तों, ये बात अर्जुन और हम जैसे दुनियादारी में फंसे लोगों को समझना या समझाना मुश्किल है और इसी में से श्रीकृष्ण हमें बाहर निकालना चाहते हैं।
काल का फेर तो चलता ही रहता है, हर काल में हमारे जैसे, अर्जुन के जैसे और श्रीकृष्ण के जैसे लोग होते हैं और आने वाले समय में भी तीनों तरह के लोग होंगे और ऐसा ही खेल फिर से होगा।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।।2.13।।
श्रीकृष्ण जीवन का खेल समझाते हुए कहते हैं, जैसे जीवात्मा की इस देह में बालक उत्पन्न, बचपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, इस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता, हमारी आत्मा तो वही रहती है लेकिन शरीर बचपन से लेकर बुढ़ापे तक बदलता रहता है, वैसे ही नए जन्म में नया शरीर मिलता है।
दोस्तों, श्रीकृष्ण कहते हैं कि बदलाव प्रकृति का नियम है, जो अभी है वह अगले पल बदल चुका है, आपको चाहे वह दिखे या न दिखे, आप उसे महसूस करे या न करें, जब बदलाव नियम है तो ऐसे नियम के लिए दुखी क्यों होना और जो नहीं बदलता उसे आत्मा कहते हैं।
दोस्तों, आत्मा की परिभाषा को समझें की शरीर तो बदलता है लेकिन आत्मा कभी नहीं बदलती है।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ।।2.14।।
हे कुंती पुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत ! उनको तुम सहन करो।
जिन्हें हमारी इंद्रियां महसूस करती हैं, वो सर्दी गर्मी या सुख दुख आते जाते रहते हैं, हमेशा नहीं रहते हैं, हमारी इन्द्रियों और उनके विषयों से जुड़कर हमें भूख, नींद, सुख दुख, सुकून और बेचैनी जैसी भावनाएं आती हैं लेकिन यह सब हमारे शरीर से जुडी बातें हैं जो ख़त्म होने वाली हैं।
परंतु जो ख़त्म नहीं होता उसे आत्मा कहते हैं।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ।।2.15।।
क्योंकि हे पुरुष श्रेष्ठ ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है।
जो व्यक्ति सुख दुख बराबर समझे जो दोनों हालातों में समान रहे, वही जीवन में आगे बढ़ता है।
आपकी जितनी भी आयु हो, एक बार जीवन में पीछे मुड़कर देखिये, न जाने कितनी बार आप सुख दुख से बीते होंगे, कभी बहुत खुशी हुई होगी और कभी किसी के जाने या किसी नुक्सान से आप बहुत दुखी भी हुए होंगे और आगे आने वाले जीवन में भी ऐसा होता ही रहेगा।
ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि जीवन में ऐसे सुख दुख तो आते जाते रहते हैं, एक ही भाव कभी रुक कर नहीं रहता।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ।।2.16।।
श्रीकृष्ण कहते हैं, असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व तत्त्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।
दोस्तों, जो झूठ है उसका कोई मूल्य नहीं है, मूल्य सिर्फ सत्य का ही है और समझदार लोग इस बात को समझते हैं, जिसका आना जाना लगा रहे उसके लिए कोई क्या शोक करे।
सुख गया तो दुख बिलकुल दरवाज़े पर आने के लिए तैयार खड़ा है, एक के लिए दुख करेंगे तो जल्द ही आने वाली दूसरी अच्छी खबर के लिए खुश होना पड़ेगा, लेकिन अगर आप ज्ञान को समझें तो पाएंगे कि ये दोनों भाव झूठे हैं, इनका कोई मूल्य नहीं, मूल्य सिर्फ आत्मा का है, जो निरंतर है और वही सत्य है।
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।2.17।।
नाशरहित तो तुम उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत दृश्यवर्ग व्याप्त है, इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
इसका तात्पर्य यह है की स्थायी सिर्फ वही है, जिसमे ये पूरी दुनिया समाई हुई है, जो सबसे बड़ा सच है, बाकी सब कुछ आता जाता रहता है, सिर्फ यह सच्चाई ही हमेशा के लिए है।
इस बात को समझने में मुश्किल आ सकती है और ऐसा भी लग सकता है की समझ नहीं आयी है, लेकिन इसको समझे बिना कोई हल भी नहीं है।
हमारी आत्मा ही दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई है, यही आत्मा हमारे भीतर है और जब ये आत्मा बाहर है तो जो दुनिया हमें दिखती है वो भी इसी में समाई हुई है।
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ।।2.18।।
सबसे बड़ी सच्चाई है, हमारी आत्मा जो मरती नहीं है, बाकी सब कुछ हमारा शरीर या हमारा भाव है, जो मर जाते हैं।
श्री कृष्ण कहते हैं, हे भरतवंशी अर्जुन ! तुम युद्ध करो, क्यूंकि ये आत्मा अमर है, इसका मरना संभव नहीं इसीलिए इसे सबसे बड़ी सच्चाई कहा गया है और महापुरुष इसी आत्मा को समझने के लिए पूरा जीवन समाधी और सन्यास में बिता देते हैं।
श्री कृष्ण का कहना है की शरीर नाशवान है और आत्मा अमर है और वही सच्चाई है तो शोक किस बात का करना।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।।2.19।।
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा हुआ मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते सच्चाई को क्यूंकि ये आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारती है और न किसी के द्वारा मारी जाती है।
इसका तात्पर्य है की आत्मा सिर्फ होती है, उसका होना ही सत्य है, बाकी कुछ नहीं, ये तो अज्ञान ही है जो हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि हमने किसी को मार दिया या हम किसी को मार देंगे।
लोग अपने अहंकार में समझते हैं की वे बहुत कुछ कर सकते हैं या बहुत कुछ कर चुके हैं, ये सिर्फ उनकी अज्ञानता है।
न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।2.20।।
भगवद गीता अध्याय 2 – श्रीकृष्ण आगे समझाते हैं कि ये आत्मा न तो किसी काल में जन्म लेती है और न ही मरती है, तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाली ही है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह मरती नहीं है।
आत्मा हमेशा रहती है हर काल में, बाकी सब कुछ आता है और जाता है, आत्मा कल, आज और कल हमेशा ही रहेगी।
दोस्तों, गीता की सबसे गंभीर बात का यह मूल है, जब कुछ नहीं था तो आत्मा थी, जब कुछ नहीं होगा तब भी आत्मा होगी, आत्मा को छोड़ बाकी सब बदलेगा, आएगा और जाएगा।
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ।।2.21।।
हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय मानता है, वो पुरुष कैसे किसी को मरवाता है और कैसे किसी को मारता है।
जो इस बात को समझता है की आत्मा ही सबसे बड़ा सत्य है, वो पुरुष किसी को कैसे मार सकता है या कैसे मरवा सकता है, इस बात को समझने का मतलब है की ब्रह्मरुपी सत्य को समझना, ब्रह्म को समझना।
सत्य से अधिक हम झूठ को महत्व देते हैं, आत्मा से अधिक हम पार्थिव शरीर को, वह शरीर जो मिट्टी से बना है और अग्नि में जल के फिर से मिट्टी हो जाएगा।
महत्व हमें अपनी आत्मा को देना है, जो हमेशा थी और हमेशा रहेगी।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।2.22।।
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर, नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।
अर्थात आत्मा को छोड़ बाकी सब कुछ बदलता है, बिलकुल वैसे ही जैसे हम कपड़े बदलते हैं।
पुराने कपडे के फट जाने पर उसे छोड़ दिया जाता है, वैसे ही अलग-अलग कारण से जब मृत्यु होती है और शरीर रहने लायक नहीं रहता, तब आत्मा उसे छोड़कर दूसरे नए शरीर में चली जाती है।
शरीर की आयु होती है, परंतु आत्मा की नहीं, जब देह की आयु पूरी हो जाती है तब उसकी साँसे रुक जाती है और आत्मा अपने घर को छोड़ दूसरे घर में चली जाती है।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।2.23।।
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती।
आत्मा कोई वस्तु नहीं जो जल जाए, कट जाए या सूख जाए, आत्मा के इसी स्वरुप को श्रीकृष्ण समझा रहे हैं, जैसे कपड़ा फटता है, गल जाता है उसी तरह से आत्मा को कोई वस्तु समझना भूल होगी, उस आत्मा को दुनिया की किसी चीज से मत तोलिये।
आत्मा किसी के भी जैसी नहीं, उसका कोई दूसरा उदाहरण संभव ही नहीं है, आत्मा अपने आप में विरली और अनूठी है, यह हमसे पहले भी थी और आगे भी रहेगी।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयम क्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।।2.24।।
यह आत्मा अच्छेद्य है, इसे छेड़ा नहीं जा सकता है, यह आत्मा अदाह्य है इसे जलाया नहीं जा सकता है, अक्लेद्य है अर्थात गीला भी नहीं किया जा सकता है और निःसंदेह, अशोष्य है अर्थात इसे सुखाया भी नहीं जा सकता है । यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाली और सनातन है।
दोस्तों, सनातन का अर्थ होता है जो हमेशा से है और हमेशा रहेगा, वही आत्मा भी है।
श्री कृष्ण यह बताना चाहते हैं, कि हम जो नाशवान है अर्थात हमारा जो यह शरीर है, इसपर ज्यादा ध्यान न दिया जाए और आत्मा को समझा जाए, जिसका नाश नहीं हो सकता, तभी हमें मुक्ति मिलनी संभव हो सकती है, वरना मोह और दुविधा में हम हमेशा फंसे रह जाएंगे, जैसे की अभी अर्जुन फंसे हुए हैं और अपना कर्म करने के लिए तैयार नहीं है।
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ।।2.25।।
आत्मा का स्वरूप अव्यक्त है, अर्थात इसे व्यक्त नहीं कर सकते हैं और समझा नहीं सकते, इसको अचिंत्य कहते हैं इसको सोच भी नहीं सकते, यह आत्मा विकाररहित है इसमें कोई कमी भी नहीं होती।
श्री कृष्ण आगे कहते हैं, हे अर्जुन ! इस आत्मा को उपयुक्त प्रकार से जानकर तुम शोक करने के योग्य नहीं हो अर्थात तुम्हारा शोक करना उचित नहीं है।
आत्मा अव्यक्त इसलिए है क्यूंकि हम इसे अपनी इन्द्रियों से नहीं समझ सकते हैं, ये इन्द्रियां दुनिया के लिए हैं जिनसे हम, दुख सुख, गर्मी सर्दी, खाना पीना, महसूस करना आदि जैसी भौतिक क्रिया करते हैं, आत्मा इन सब से परे है।
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ।।2.26।।
आत्मा का ये ज्ञान श्रीकृष्ण अर्जुन को इसलिए दे रहे हैं, क्यूंकि अर्जुन जिनके लिए शोक कर रहे हैं वो सब व्यर्थ है।
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि, हे अर्जुन यदि तुम आत्मा को सदा जन्म लेने वाली और सदा मरने वाली समझते हो, तो हे महाबाहो ! तुम इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं हो।
दोस्तों, अगर अर्जुन आत्मा को जन्म लेने वाली और मरने वाली समझते हैं, तो भी शोक करने का कोई अर्थ नहीं है, अगर अर्जुन आत्मा को शरीर की तरह ही जन्म लेने वाला और मरने वाला समझते है, तो भी युद्ध में मरने वालों के लिए शोक करने का कोई मतलब नहीं।
जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।2.27।।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि, हे अर्जुन ! अगर तुम ये मानते हो की जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है, तो इससे भी बिना उपाय वाले विषय में तुम्हें शोक करने का कोई हक़ नहीं है।
जन्म और मृत्यु तो जुड़े हैं एक के बाद दूसरे का होना, तो फिर शोक क्यों करना जिसका जन्म हुआ उसका मरना तो निश्चित है, और अगर आत्मा ने जन्म लिया है तो उसका मरना भी निश्चित है।
श्रीकृष्ण यहाँ पर यह कहना चाहते हैं कि न जाने हम कितनी बार उन बातों के लिए शोक करते हैं जिसका होना तय है, ये समझदारी नहीं है जो तय है वो तो होकर ही रहेगा और जो होगा ही उसके लिए शोक करके अपने आप को कमज़ोर बनाने की क्या आव्यशकता है।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।2.28।।
हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना?
हमारा होना किसी का भी होना उनके जन्म और मृत्यु के बीच में होता है, तो फिर शोक किसके लिए करना।
अचानक से एक जन्म होता और जब कोई नहीं था तो वह खिलखिलाता खुशियां लेकर जीवन लाता है, लेकिन उसके साथ किसी के जाने की भी तैयारी शुरू हो गयी है, ऐसा तो हो नहीं सकता की हम अच्छे के लिए खुशियां मनाते रहे और बुरे के लिए शोक मनाते रहें, जीवन के सत्य को हमें मानना पड़ेगा।
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।2.29।।
भगवद गीता अध्याय 2 – कोई एक महापुरुष ही आत्मा को आश्चर्य के भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष इसके तत्व को आश्चर्य के भाँति वर्णित करता है तथा दूसरा कोई आधिकारिक पुरुष इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जनता।
इसका मतलब है की आत्मा को समझना बेहद मुश्किल है, कुछ आत्मा के बारे में सुनकर हैरान होंगे की ऐसा कैसे हो सकता है, कोई हैरान होकर आत्मा का वर्णन करेगा और हम में से ऐसे कई होंगे जो सुनकर इस बात को समझ नहीं पाएंगे।
बात पर गौर कीजिये कि कितनी बार ज्ञान की बात सुनते हैं और थोड़ी देर बाद ही अपनी मोह-माया की जिंदगी में फिर से व्यस्त हो जाते हैं।
दोस्तों, अगर आप मोह-माया से निकलना चाहते हैं तो आपको इस आत्मा को समझना पड़ेगा।
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ।।2.30।।
हे अर्जुन ! ये आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है, इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।
अवध्य का तात्पर्य है कि आत्मा का वध करना संभव नहीं है, जब आत्मा को कोई मार ही नहीं सकता और आत्मा ही सच है, तो तुम शोक किसके लिए कर रहे हो।
दोस्तों, जो सबसे बड़ी बात सामने आती है वो ये है कि आत्मा को समझा कैसे जाए, इसको समझना ही मोक्ष की प्राप्ति है।
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ।।2.31।।
श्रीकृष्ण अर्जुन को याद दिलाते हैं कि तुम अपने धर्म को देखकर भी तुम भय करने योग्य नहीं हो अर्थात तुम्हें भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर कोई दूसरा कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है।
दोस्तों, श्रीकृष्ण कहते हैं की अगर हमने किसी कार्य को करने का निर्णय ले लिया है, फिर उससे डरना नहीं चाहिए, पूरे तन-मन से उस काम को करने के लिए जुट जाना चाहिए।
ज्ञान यह है कि निर्णय के बाद डरने का कोई मतलब नहीं है, सिर्फ और सिर्फ कर्म करने का मतलब है।
यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ।।2.32।।
हे पार्थ ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार-रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं।
दोस्तों, युद्ध या चुनौती को खुले मन से स्वीकार करने में ही सबसे बड़ी ख़ुशी है, श्रीकृष्ण युद्ध को स्वर्ग का खुला हुआ द्वार बता रहें हैं।
हमारे लिए भी यह बात ऐसे सही है की हमारे जीवन में भी जब कोई चुनौती आती है तो उसे मोक्ष का द्वार मान कर उसे पूरा करने में जुट जाना चाहिए।
क्षत्रिय वह है जो युद्ध में अपना धर्म निभाए, अगर आपकी कामना, आपका प्रयास आपके लिए युद्ध है, तो आपको भी अपने धर्म को पूरा करना चाहिए।
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ।।2.33।।
किन्तु यदि तुम इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करोगे तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगे।
श्रीकृष्ण चेतावनी देते हैं, कि अगर हमने अपनी चुनौतियों को स्वीकार नहीं करा तो उसके बदले में सिर्फ पाप ही मिलेगा।
हमारा स्वभाव हमें युद्ध करने की क्षमता, शक्ति को पैदा करता है और यदि हमारा स्वभाव हमें युद्ध से दूर ले जा रहा है इसका मतलब हम अपने धर्म से दूर हो रहें हैं और पाप के भागी हो रहें हैं।
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्ति र्मरणादतिरिच्यते ।।2.34।।
श्रीकृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन ! सब लोग तुम्हारी बहुत काल तक तक रहने वाली अकीर्ति का चिंतन करेंगे और सम्मानीय पुरुष के लिए अकीर्ति मरण से भी बढ़कर है।
इसका तात्पर्य है की अगर युद्ध करने से अगर मना कर दिया तो इससे बड़ा अपमान कुछ नहीं हो सकता, कुछ लोगों की भीड़ में अगर आप जातें है तो लोग आपकी प्रशंसा करते हैं और दूसरी स्थिति में अगर कहीं आप जाते हैं तो लोग आपको अपमान की दृष्टि से देखते हैं, आपको क्या स्वीकार है यश या अकीर्ति।
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ।।2.35।।
श्रीकृष्ण कहते हैं जिनकी दृष्टि में तुम बहुत पहले सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगे, वे महारथी तुम्हें तुम्हारे भय कारण तुम्हें युद्ध से हटा हुआ मानेंगे।
दोस्तों, अर्जुन को सभी महान योद्धा समझते थे, अगर अर्जुन युद्ध से हट जाते तो वे सब उन्हें कायर मानते।
चाहे अर्जुन हो या हम युद्ध से हटने में बहुत अपमान होता है, अच्छा या बुरा, छोटा या महान सब तुलना का खेल है इस खेल में हार जीत तो होती ही है, इसके अलावा युद्ध में कौशल दिखाना भी एक बहुत बड़ी बात होती है और अगर कोई युद्ध से ही मुँह फेर ले तो समाज में उसे कहीं जगह प्राप्त नहीं होती है।
अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ।।2.36।।
आपके बैरी और आपके शत्रु तो इसी अवसर में रहते हैं की कब आपकी निंदा कर सकें, युद्ध से भाग के उन्हें ऐसा मौका क्यों देना।
हे अर्जुन ! तुम्हारे बैरी तुम्हारे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुम्हें बहुत से न कहने वाले वचन भी कहेंगे, उससे बड़ा दुख और क्या होगा।
दोस्तों, जरा अपने चारों तरफ देखिये, ऐसे लोगों की भरमार होगी जो इस अवसर पर होंगे की कब आपको नीचा दिखाया जाए और यह अवसर अगर आप खुद ही उन्हें थमा देंगे तो सोचिये की उन्हें कितनी ख़ुशी होगी, फिर उन्हें हमें ये मौका देने की क्या आव्यशकता है।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ।।2.37।।
या तो तुम युद्ध में मारे जाकर स्वर्ग के लिए प्राप्त होगे या तो तुम युद्ध में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगोगे, इस कारण हे अर्जुन ! तुम युद्ध के लिए निशचय करके खड़े हो जाओ।
दोस्तों, आज की दुनिया में इसी बात को सोच के देखिये, पूरे जी-जान से खेलने पर आप हार जीत की चिंता नहीं करते क्यूंकि आप अपना सब कुछ झोंक चुके होते हैं, जीतने पर नाम होता है और हारने पर भी आप अपने और दूसरों के मन में सम्मान पाते हैं, क्योंकि आपने धर्म के अनुसार युद्ध किया, इसलिए अपनी चुनौतियों से कभी भी मुँह नहीं मोड़ना चाहिए।
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।।2.38।।
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जाओ, इस प्रकार युद्ध करने से हे अर्जुन ! तुम पाप को नहीं प्राप्त होगे।
दोस्तों, अगर आप अपनी चुनौती में अपना सर्वस्व लगा देते हैं, तो जीतने पर तो सब कुछ मिलेगा ही, लेकिन अगर हार भी जाते हैं तो अफ़सोस नहीं होगा क्यूंकि आपके पास जो भी था उसे आपने युद्ध में लगा दिया।
अब इस स्तिथि को बड़े ध्यान से देखिये युद्ध में अपना सब कुछ लगा देने पर हार-जीत का अंतर कम हो जाता है और यही तो श्रीकृष्ण भी कह रहें हैं की सुख और दुख को एक जैसा समझें और बस अपने कर्म में लग जाएं।
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ।।2.39।।
हे पार्थ ! ये बुद्धि तुम्हारे लिए ज्ञानयोग के विषय के लिए कही गई है और अब तुम इसको कर्मयोग के विषय में सुनो।
दोस्तों, अब श्रीकृष्ण कर्मयोग के बारे में बता रहे हैं, जिससे कर्मों के बंधन को तोड़ा जा सके, नष्ट किया जा सके।
ज्ञान सोचने और समझने की बात है और कर्म व्यावहारिक, ये दोनों तरीके अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए हैं।
यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।।2.40।।
भगवद गीता अध्याय 2 – इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उल्टा फल रुपी दोष भी नहीं है, बल्कि इसमें कर्मयोग रुपी धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म-मृत्यु रुपी भय से रक्षा करवा देता है।
सबके लिए ज्ञान का, साधना का, साधुओं का मार्ग संभव नहीं है, हमारे जैसे अधिकतर लोगों को कर्मयोग अपनाना चाहिए, अगर कर्मयोग को समझकर हम सब उसपर चल सकें तो कभी निराशा नहीं होगी।
अगर इस कर्म योग को हम थोड़ा सा भी समझ लें, तो जन्म और मृत्यु के डर से बच सकते हैं।
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ।।2.41।।
हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन विचार वाले मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं।
जब फैसला लेना हो तो बुद्धि एक ही होती है लेकिन जहाँ सोच की और फैसले की कमी हो वहां कई बुद्धियाँ कार्य करती हैं, दोस्तों, यहाँ अनिर्णय की स्थिति के बारे में कहा गया है।
जब आप कोई फैसला नहीं ले पाते हैं, तो न जाने कितनी ही दिशाओं में आपकी बुद्धि या ध्यान जाता है, लेकिन आप अगर निर्णय लेने का सोच लें तो फिर उस कार्य को करने का ही प्रण होता है और अगर ऐसा नहीं है, तो ऐसा होना चाहिए।
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ।।2.42।।
हे अर्जुन ! जो भोगों में तनमय हो रहें हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेद वाक्यों में प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्त्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी और कोई वस्तु ही नहीं देखते, यानी ऐसे लोग जो कर्म के बदले में सिर्फ फल या लाभ की ही बात करते हैं।
जब भी काम उससे होने वाले फायदे से शुरू होता है, तो वह काम नहीं स्वार्थ हो जाता है, उसे कर्म नहीं कह सकते, जो लोग ऐसा करते हैं, उन्हें श्रीकृष्ण कर्मफल का प्रशंसक बता रहे हैं, आप अकर्मी होने से बचिए।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ।।2.43।।
ऐसे लोगो को श्रीकृष्ण ढोंगी बताते हैं, वे कहते हैं, हे अर्जुन ! ऐसा जो कहने वाले हैं वो अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्प अर्थात दिखावटी वाणी को कहते हैं, ऐसे लोग ढोंगी होते हैं।
यानि वो लोग जो कर्म की बात सिर्फ इसलिए करते हैं ताकि उन्हें बदले में भोग या ऐश्वर्य जैसे लाभ मिल सकें, वह सब उनका ढोंग है।
कई लोग आपको जरूर मिलेंगे जो जमीन पर इतना काम नहीं करेंगे जितना उसका बखान करेंगे, दोस्तों, ऐसे ढोंगी लोगों से बचना चाहिए।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।2.44।।
जो लोग कर्म की बातें सिर्फ भोग और ऐश्वर्य के लिए करते हैं, जिनका धेय सिर्फ भोग और ऐश्वर्य है, उन मनुष्यों की परमात्मा में निश्चयपिका बुद्धि नहीं होती, यानी ऐसे लोगों का धेय स्वार्थ होता है, भगवान या अपने काम में सच्ची लगन नहीं होती, ऐसे लोगों की संगत से बचना चाहिए।
इनकी लोगों की पहचान इनके नकारात्मक स्वभाव से, इनकी बातों से आप समझ जायेंगे की काम में इनकी कोई रुचि नहीं है, बस उस काम का फल भोगने में इनको बहुत रुचि है।
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ।।2.45।।
हे अर्जुन ! वेदों के कर्म काण्ड हमारी प्रकृति के तीन गुणों से जुड़े हैं, इसलिए तुम उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तहीन, हर्ष, शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग और क्षेम को न चाहने वाला और स्वाधीन अंतःकरण वाला हो।
यहाँ पर श्रीकृष्ण अत्यंत कठिन लेकिन सबसे बड़ी बात कह रहें हैं, वे कह रहे हैं की वेद भी सिर्फ तीन गुणों में ही सिमित हो जाते हैं और उससे आगे वो भी नहीं जानते, उससे आगे कर्मयोग है।
उनका कहना की कर्म करो लेकिन उसमें आसक्त न हो और उससे जुड़े सुख दुख से लगाव न रखो।
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ।।2.46।।
बेहद बड़े जलाशय के प्राप्त हो जाने पर, छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, उसी तरह से अगर जिसने ब्रह्म तत्व को समझ लिया तब उसके लिए वेदों की कोई आव्यशकता नहीं है।
पोथी पड़-पड़ जग मुआ जगनित भया न कोए, पोथी अर्थात वेद से ही आपको सफलता प्राप्त होगी ऐसा सोचना गलत है, कर्मयोग तो उस बड़े तालाब की तरह है की अगर ये मिल गया तो छोटे तालाब की जरुरत आपको क्यों पड़ेगी।
कर्म का खेल इतना बड़ा है की उसके सामने सारे ज्ञान छोटे पड़ जाते हैं, लेकिन आपको कर्म को समझना पड़ेगा की आखिर ये होता क्या है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।।2.47।।
तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में बिल्कुल भी नहीं, इसलिए तुम कर्मों के फलों के लिए कार्य बिल्कुल मत करो और ऐसा भी न हो की तुम कर्म ही न करो, कर्म करना है लेकिन फल के लिए नहीं।
दोस्तों, गीता के सबसे लोकप्रिय श्लोक में इस श्लोक की गिनती होती है, कर्म करना है लेकिन फल के लिए नहीं, उसे अपना धर्म और कर्तव्य समझ कर करना है।
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।2.48।।
श्रीकृष्ण योग को और समझा रहे हैं, हे धनंजय ! तुम आसक्ति को त्याग कर, सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुए कर्तव्य कर्मों को करो, कर्म के फल की इच्छा मत करो और ऐसा नहीं करना की कर्म करने की इच्छा न हो, यही निष्काम कर्म की पूँजी, उसकी चाबी और उसका सार है।
कर्म के बाद क्या फल मिलेगा उसकी परवाह किए बिना पूरी लगन से अपने धर्म और कर्तव्य को पूरा करो।
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ।।2.49।।
कर्म के फल की इच्छा को छोड़ के जो निष्काम कर्मयोगी होता है वो पाप और पुण्य से दूर हो जाता है, जो फल के लिए काम करते हैं, उन्हें हमेशा असफल होने का डर रहता है और इसीलिए वे कभी भी कर्म को अच्छे से नहीं कर पाते हैं और यदि उन्हें फल मिल भी जाता है तो वे इसी फल में उलझ जाते हैं।
इसलिए हमें बुद्धियोग की शरण में आना चाहिए, लगन सिर्फ कार्य में और भगवान में, तब बुद्धि अच्छे से कार्य कर पाती है।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ।।2.50।।
भगवद गीता अध्याय 2 – बुद्धियोग की शरण में आने से बिना फल के कार्य करने वाला इसी दुनिया में पाप और पुण्य से मुक्त हो जाता है।
हे अर्जुन ! तुम समत्व रूप योग में लग जाओ अर्थात अच्छा हो या बुरा हो, सुख हो या दुख हो, सभी में एक ही तरीके से समभाव से तुम बस अपना कर्म और कर्तव्य करते रहो।
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ।।2.51।।
आम मनुष्य कर्म करके और उसके फल को प्राप्त करके खुश होता है और उसके बाद दूसरे फल के लालच में अगले नए कर्म में लग जाता है।
इसमें फल के बारे में सोचना ही प्रधान है और यही गलत बात है, अगर आप अपनी सारी क्षमता, इच्छा कर्म में लगाएं और फल को भूल जाएँ तो क्या होगा, आपका ध्यान कर्म में होगा, आप उस कर्म में बेहतर होंगे, आपकी तरक्की होगी और रही बात फल की तो सोच के देखिये, अगर आपने कर्म किया है तो फल जायगा कहां।
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ।।2.52।।
कर्म के फल का मोह हो या रिश्तों का मोह हो या धन या ऐश्वर्य का मोह, यही मोह हमें फंसाता है, जब बुद्धि मोह के दलदल से निकल जाती है, तब भगवान के पास आने के द्वार खुल जातें हैं।
रिश्ते, धन, ऐश्वर्य बुरे नहीं हैं लेकिन उनसे मोह बुरा है क्यूंकि जब आपका लगाव इन चीजों से हो जाता है तो सोचने की शक्ति कम हो जाती है, बुद्धि ठीक से काम नहीं करती, फैसले गलत हो जाते हैं, इसलिए इस मोह को बुरा बताया गया है।
धृतराष्ट्र के पुत्रमोह से ही महाभारत का युद्ध लड़ा गया था, युद्धिष्ठिर के द्युत मोह में ही उनका पूरा राज्य चला गया था।
दोस्तों, ये उस समय की ही बात नहीं है, आप चाहे तो वर्तमान समय में भी कई उदाहरण देख सकते हैं।
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।2.53।।
जितने लोग होते हैं उतनी किस्म की बातें होती हैं और जितनी बातें होती हैं उतने तरीके से बुद्धि सोचती है, जब बुद्धि स्थिर होकर भगवान में लग जाती है तो उसे ही योग कहते हैं।
बुद्धि का स्थिर हो जाना ही एकाग्रता कहलाता है, स्थिर होकर एकाग्रता से कुछ करने को समाधी की स्थिति भी कहते हैं और अगर आपने एकाग्रता से कार्य किया हुआ हो तो वह काम कभी भी व्यर्थ नहीं होगा।
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ।।2.54।।
अर्जुन पूछते हैं, हे केशव ! समाधी में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है।
दोस्तों, आप जरूर जानना चाहेंगे की जो लोग अपने-अपने क्षेत्र में सबसे ऊपर पहुंचते हैं, उनकी सफलता का राज़ क्या है? अर्जुन भी यही जानना चाहते हैं की जो बुद्धि को स्थिर होकर एक जगह लगा देते हैं उनकी क्या पहचान है।
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।।2.55।।
श्री भगवान उत्तर देते हैं, हे अर्जुन ! जिस काल में ये पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने बताया था की आत्मा ही सबसे बड़ी सच्चाई है, मोह, इच्छा, कामना छोड़ना ही आत्मा के पास आना है, जिसको संतुष्टि या शान्ति के लिए किसी दूसरे पर निर्भर नहीं रहना पड़ता वही अपनी कामना को त्याग सकता है।
दोस्तों, सोचिये की आपको आपकी ख़ुशी या शांति के लिए किसी और की आव्यशकता पड़ सकती है?
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।।2.56।।
बुरा होने पर जिसके मन में दुख पैदा न हो, अच्छा होने पर जो मन भी शांत रहे, ख़ुशी से पागल न हो, गुस्सा, डर या प्रेम, जो सब कुछ एक ही भाव से एक ही जैसा देखता हो उसकी बुद्धि स्थिर रहती है और वही मुनि या योगी कहलाता है।
अच्छी खबर में खुश हो जाना और बुरी में उदास ये तो स्वाभाविक ही है, अगर किसी पशु को भी आप कुछ खाने के लिए देंगे तो वह खुश जाएगा और अगर खाना छीन लेंगे तो उस पशु को बुरा लगेगा, लेकिन इन सब से जो ऊपर उठ जाता है इन सब अवस्थाओं में भी वह अपनी स्वयं की हालत नहीं बदलता मतलब उसकी बुद्धि स्थिर है यानी की वह मुनि या योगी कहलाने के लायक है।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।2.57।।
जिसमें लगाव नहीं है, शुभ हो या अशुभ, अच्छा हो या बुरा जो दोनों को एक जैसे देखता है, वही अपनी बुद्धि को स्थिर रखता है।
इस श्लोक में श्रीकृष्ण समझा रहे हैं की किस तरह से अलग-अलग हालत में खुद को और अपनी बुद्धि को स्थिर रखा जाए, कैसे संयम और धैर्य से हम अपने जीवन में अनुशासन ला सकते हैं, वरना चारों तरफ या तो दुख की हाहाकार होगी या ख़ुशी से लोग झूम रहे होंगे।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।2.58।।
कछुआ जिस तरह से सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही पुरुष इन्द्रियों के विषय से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।
इसका मतलब दुनिया में रहकर भी दुनियादारी से बचकर रहना ही बुद्धि को स्थिर रखना है. अगर किसी के सामने आप बहुत ही स्वादिष्ट खाना रखें, तो क्या वो खुद को रोक पायेगा, किसी के सामने आप महंगे आभूषण रख दें तो क्या वह खुद पर नियंत्रण रख पाएगा, अगर इसको कोई संभव कर दे उसी की बुद्धि स्थिर होती है।
आप स्वयं पर आज़मा के देखें अगर दुनिया की वस्तुएं आपको लुभा नहीं पाती, तो आप अपनी बुद्धि को नियंत्रण में ले आएंगे।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ।।2.59।।
संभव है की हम दुनिया के विषयों में रूचि न लें, इससे हम दुनिया से दूर तो हो जायेंगे पर दुनिया के प्रति आसक्ति नहीं जाती।
कहने का मतलब है की मन की इच्छा को ख़त्म करना है, आसक्ति ख़त्म करनी है अगर ऐसा करना है तो ही बुद्धि स्थिर होगी।
श्रीकृष्ण कह रहे हैं, की मान लीजिये की आप दुनिया की वस्तुओं को न भी बोल देते हैं, तो क्या आपका मन उन्हीं में लगा हुआ है।
आसक्ति, इच्छा ख़त्म करनी है, तभी तो मोह ख़त्म होगा और मन के लगाव को ही मोह कहते हैं।
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ।।2.60।।
भगवद गीता अध्याय 2 – हे अर्जुन ! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियां प्रयास करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं।
श्रीकृष्ण समझा रहे हैं, जहां आप अपनी इच्छा या आसक्ति ख़त्म नहीं करते वहां इन्द्रियां आपको अपने वश में कर लेती हैं।
सोचिये कितनी ही बार ऐसा होता है की सुख और दुख आपके वश में नहीं बल्कि आप सुख और दुख के वश में हो जाते हैं, कभी हंसी नहीं रूकती तो कभी रोना नहीं रुकता, कभी भूख नहीं रूकती तो कभी नींद नहीं रूकती और कभी कामवासना भी नहीं रूकती।
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।2.61।।
इन्द्रियों को वश में रख के जो भगवान को ध्यान में रख जो अपने कर्म या कर्तव्य में जो ध्यान लगाता है, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है, वह ईश्वर और अपने लक्ष्य के करीब हो जाता है।
दोस्तों, अगली बार आप कुछ भी करें तो यह देखिएगा की वो कार्य आपसे आपकी इन्द्रियां करवा रही हैं या आपका कर्म वह करवा रहा है, आप खुद ही समझ जाएंगे की श्रीकृष्ण क्या कहना चाहते हैं, इन्द्रियों के वश में न होना और उन्हें अपने वश में करने से ही आप अपनी बुद्धि को स्थिर कर पाएंगे।
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।।2.62।।
विषयों के बारे में अर्थात इच्छाओं के बारे में सोचते रहने से उसमें आसक्ति हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और जब वह कामना पूरी नहीं होती तो क्रोध उत्पन्न होता है।
जिस तरह ज्यादा खाने से भूख बढ़ती है, ज्यादा सोने से नींद बढ़ती है उसी तरह से जब आप अपनी इच्छाओं के बारे में सोचते रहते हैं तो उसी में फंस के रह जाते हैं और उसे ही आसक्ति कहते हैं।
आसक्ति के बढ़ने को कामना कहते हैं और कामना के पूरा न होने पर गुस्सा आता है और तब आप अपनी समझ खो देते हैं।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।2.63।।
यानी सोचने की शक्ति कम हो जाती है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, जब सोच नहीं सकते तो याद भी नहीं रख सकते, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है।
जब याद नहीं रख पाएंगे तो ज्ञान किसी काम नहीं आएगा, बुद्धि बेकार हो जाएगी और बुद्धि का नाश हो जाने से पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।।2.64।।
जो अपनी इच्छाओं को, अपनी आसक्ति को अपने नियंत्रण में रख पाते हैं, दोस्ती-शत्रुता, गुस्से या प्यार के बिना अपनी इन्द्रियों को भटकने नहीं देते, वे अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होते हैं।
ऐसे लोगों को बाहरी नहीं, हार्दिक और आंतरिक प्रसन्नता होती है।
दोस्तों, आनंद, ख़ुशी, शांति कहीं बाहर नहीं होती, वो तो हमारे अंदर होती है और हम उसे बाहर ढूँढ़ते हैं।
इसलिए ऐसा कहा गया है, “मोको कहां ढूंढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में”
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।।2.65।।
अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर अर्थात अंदर से प्रसन्न होने पर दुख ख़त्म हो जाते हैं और ऐसे प्रसन्नचित कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर परमात्मा में ही भलीभांति स्थिर हो जाती है।
दोस्तों, आप अपने लक्ष्य के बारे में सोचिए, प्रयास कीजिये की उसे दुनिया में सबसे अच्छा कैसे कर सकते हैं और उसे पूरा करने में लग जाइये, फल का मत सोचिये की लक्ष्य पूरा होगा की नहीं, बस उसे करते रहिये फिर देखिये की कैसी मानसिक शान्ति की आपको अनुभूति होती है।
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।।2.66।।
जो पुरुष अपने मन या अपनी इन्द्रियों को नहीं जीत पाते, उनमें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती, यानी की वे स्पष्ट और सटीक निर्णय नहीं ले पाते, ऐसे मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती।
भावनारहित मनुष्य को शांति नहीं मिलती और शांति रहित मनुष्य को सुख कैसे प्राप्त हो सकता है।
बीमार आदमी के लिए क्या अच्छा खाना और क्या बुरा खाना, उसे कुछ अच्छा नहीं लगता, जो अंदर होता है वह बाहर आता ही है, जब आपके अंदर शान्ति नहीं होगी तब आप आनंद कभी नहीं ले पाएंगे।
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।।2.67।।
जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, जैसे हवा पानी में चलने वाली नाव की दिशा बदल देती है, वैसे ही विषयों में विचरती इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्री के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्री इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है।
अगर वह क्रोध में है तो वह और कुछ नहीं सोच पाएगा और अगर प्रेम में है तो उसे और किसी बात की सुध भी नहीं रहेगी, जिस भी इन्द्री के वश में होगा, उसे उसके अलावा और कुछ समझ नहीं आएगा।
दोस्तों, इन इन्द्रियों के नियंत्रण से निकलकर आप इन्हें अपने वश में करें, फिर देखिये की आपके लिए क्या असंभव है, सब कुछ संभव हो जाएगा।
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।2.68।।
इसलिए, हे महाबाहो ! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है।
यानि जिस पुरुष ने अपनी इन्द्रियों और उनसे होने वाले विषयों पर पूरी तरह से रोक लगा रखी है, उसी की बुद्धि स्थिर है और बुद्धि हमारा ध्यान ऐसी-ऐसी जगह पर ले जाती है, जहां पर हम उलझ के हमारा असली मकसद भूल जाते हैं।
बुद्धि हमारी इन्द्रियों को सहारा लेती है, इसलिए अगर बुद्धि पर विजय प्राप्त करनी है तो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनी होगी।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।।2.69।।
सम्पूर्ण प्राणियों के लिए, जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञान स्वरूप परमानंद की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए ये वह रात्रि के समान है।
दोस्तों, श्रीकृष्ण की यह बात गहरी है और समझनी पड़ेगी, जो सबके लिए रात है उस रात में योगी परमात्मा के लिए और ज्ञान के लिए जागता है और साधना करता है और जो सबके लिए सांसारिक सुख है, जिसके लिए संसार में हर कोई जागता है, वह सुख योगी के लिए रात के समान है।
जब सब सोते हैं तो मेहनती बच्चा रात में जाग कर पढता है और परीक्षा में वह ही अव्वल आता है।
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ।।2.70।।
भगवद गीता अध्याय 2 – जैसे अनेक प्रकार की नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना समा जाते हैं, वही पुरुष परम शांति को प्राप्त होता है।
भोगों को चाहने वाला नहीं, नदियां समुद्र पर कोई व्यवधान नहीं डालती, उसी तरह से स्थिर बुद्धि वाले पुरुष में सारी इच्छाएं, सारे भोग समा जाते हैं और उसे विचलित नहीं करते।
कई बार किसी के कहने पर आपको बुरा लगता है और आप अपना आपा खो देते हैं, इसका मतलब आपको अपने आप में नियंत्रण नहीं है, आपको ऐसा समुद्र बनना है जिसमें कोई भी नदी अर्थात किसी भी तरह की गाली या बुरे वचन आपको कभी विचलित नहीं कर पाएं।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ।।2.71।।
जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर, ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है अर्थात वह शांति को प्राप्त है।
कामना का, इच्छा का त्याग करना है, उससे मोह नहीं रखना है, घमंड नहीं करना है, दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग रहना है, ऐसे ही मनुष्य को शांति प्राप्त होती है।
कामयाब वही होता है जो परेशान हुए बिना अपनी धुन में अपने काम में लगा रहता है और सफलता उसी के ही पाँव चूमती है।
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ।।2.72।।
हे अर्जुन ! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त कर कभी योगी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्रह्म स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है।
दोस्तों, श्रीकृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं की जो पुरुष ऐसा करने में सफल होता है, उसे ब्रह्म की प्राप्ति होती है, ब्रह्म का अर्थ है सबसे बड़ा सत्य, इससे आगे कुछ भी नहीं होता।
श्रीकृष्ण कहते हैं की ये जो सारे लक्षण होते हैं, वे उन लोगों के हैं जो अपनी बुद्धि को स्थिर रख कर अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।
स्वाभाविक है की अगर हम भी इन बातों को अपने जीवन में उतार लें, तो हम भी अपने लक्ष्य से कभी दूर नहीं रहेंगे।
भगवद गीता अध्याय 2 – सांख्य योग
दोस्तों, तो यह था गीता का दूसरा अध्याय सांख्य योग, इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने कर्म को समझाया, उसके प्रति हमारे उत्साह को बढ़ाया और यह समझाया की सिर्फ और सिर्फ कर्म में ही अपना ध्यान रखें और किसी भी बात में नहीं।